गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

वर्तिका नंदा की कविता

आंखों के छोर से

पता भी नहीं चलता

कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो

मैं सपने देखूं।

तुम देख आए तारे ज़मी पे

तो तुम्हें लगा कि सपने

यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।

मैं औरत हूँ।

अकेली हूं।

पत्रकार हूं।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं

पर अपने कमरे के शीशे के सामने

मेरा जो सच है,वह सिर्फ मुझे ही दिखता है

और उसी सच में, सच कहूं,सपने कहीं नहीं होते।

तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था

मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं

तब मैं कहां जानती थी दोनों एक ही हैं।

बस, अब मुझे मत कहो कि मैं देखूं सपने

मैं अकेली ही ठीक हूं

अधूरी, हवा सी भटकती।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे

समझ भी नहीं सकते

क्योंकि तुम औरत नहीं हो

तुमने औरत के गर्म

आंसू की छलक

अपनी हथेली पर रखी ही कहां?


अब रहने दो

रहने दो कुछ भी कहना

बस मुझे खुद में छलकने दो और अधूरा ही रहने दो।

(वर्तिका नंदा की अनुमति से प्रकाशित....)

1 टिप्पणी:

PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड ने कहा…

आईनें की तरह चटकते सपनों की कविता।