बुधवार, 24 मार्च 2010

LSDक्या करें कुछ समझ नहीं आता, कोई मंज़र नज़र नहीं आता


महीने, दो महीने पहले सुनील शानबाग द्वारा निर्देशित नाटक 'सैक्स, मोरेलिटी और सेंसरशिप' देखा था l इसमें गालियों की भरमार थी और मै बार-बार ये सोच रहा था कि शुक्र है हमारे बुज़ुर्ग लोग यहाँ नहीं आये वर्ना उनकी थोथी नैतिकता के पैरों तले हम बेवजह कुचले जाते l इस नाटक में सुनील शानबाग ने 'सखाराम बाइनडर' को उपजीव्य बनाकर इस अनैतिक दौर में 'सैक्स' और 'मोरेलिटी' को डिफाइन करने की सफल कोशिश की है l यह कोशिश सफल इसलिए है कि न सिर्फ यह सैंसरशिप के वास्तविक पैमानों को खोलती है बल्कि इस तथाकथित नैतिकता और मूल्यों के युग में आज के वक़्त की असलियत को सैंसर करने के षड्यंत्र को भी दिखाती है l
'लव,सैक्स और धोखा' में भी मुझे कुछ ऐसा ही अनुभव होता है फर्क सिर्फ इतना है कि वहां असलियत को सैंसर करने के षड्यंत्र को दिखाया गया था और यहाँ असल जिंदगी को, जिससे बहुधा हमें मुँह फेरने की आदत है l LSD को देखने के क्रम में ek दर्शक कई वर्गों में हमें दिखता है एक वर्ग वह है जो इस फिल्म में 'सेक्स' की आस लिए गया था हालाँकि इसकी उम्मीद कम है क्योंकि सेक्स दर्शन अब दुर्लभ नहीं रहा उससे वैबसाईट भरी पड़ी है
एक वर्ग और है इसे हम बौद्धिक वर्ग कह सकते है इसने दिबाकर बैनर्जी की पहली दोनों फिल्में 'खोंसला का घोंसला' और 'ओये लक्की, लक्की ओये' देखीं हैं जो दिबाकर के प्रयोगों की प्रगतिशील समझ से वाकिफ है जो वस्तुत: दिबाकर बैनर्जी के इस नए प्रयोग को देखने गया था दिबाकर ऐसे दर्शक को निराश नहीं करते बिलकुल सुनील शानबाग की तरह l

इस फिल्म की रिलीज़ के दिन(१९ मार्च) शाम को जब घर लौटा तो एक मीडिया चैनल पर एक समीक्षक(कुछ अजनबी से) को इस फिल्म को कोसते हुए सुना, यूँ तो वो भी उनकी पिछली दोनों फिल्मों के प्रशंसक थे लेकिन इस फिल्म(लव,सेक्स और धोखा) के शीर्षक में 'सैक्स' शब्द को देखकर ही वे भभक उठे, उन्हें शिकायत थी कि दिबाकर इस फिल्म से समाज में अश्लीलता फ़ैलाने की कोशिश कर रहे हैंl शायद इससे उनकी नैतिकता प्रभावित हुई थीl
तब तक मैंने फिल्म नहीं देखी थी लेकिन जब देखी तो किसी एंगल से भी वो अश्लील या फूहड़ नहीं लगी बल्कि इससे कही ज्यादा सेक्सुअल सीन तो हमें महेश भट्ट की फिल्मों में देखने को मिल जाते हैं l यदि आप उसे अश्लीलता माने तो? हालांकि मै इसे अश्लीलता नहीं मानता यह तो सच्चाई के सारनाथ का छिपा हुआ शेर मात्र है
हालांकि यह फिल्म उन लोगों को निराश कर सकती है जो सिनेमा को एक मनोरंजन और आनंद प्रदान करने वाली विधा मानते हैं, यह उन लोगों में भी खीज पैदा कर सकती है जो इसमें 'लव,सेक्स और धोखा' की जगह 'प्यार,इश्क और मोहब्बत' पर सेक्स कैसे हावी होता है? यह देखने गए हों l साथ ही यह उन लोगों के लिए भी निराशा और गुस्से का सबब साबित हो सकती है जो समाज में व्याप्त अनैतिकता और विद्रूप स्थितियों से मुँह फेरने को ही मूल्य और नैतिकता मानते हों इस तरह के लोग दरअसल एक तरह के यूटोपिया में रहने के आदि हैं लेकिन जो लोग दिबाकर बैनर्जी के काम से परिचित हैं वो इन सब ढकोंसलों को दरकिनार करते हुए एक बौद्धिक दर्शक की हैसियत से इस फिल्म को देखने के खूबसूरत पर खतरनाक एहसास से वाकिफ ज़रूर होंगे l.
दिबाकर का यह नजरिया वाकई काबिलेतारीफ है कि बिना किसी शूटिंग लोकेशन के, बिना किसी बड़े नामी हीरो-हिरोइन के, और फिजूलखर्ची किये बिना वह हमें हमारे समाज-तंत्र की विद्रूप स्थितियों की खबर दे देते है वे दरअसल व्यावसायिक सिनेमा के दौर में जोखिम लेते हुए एक बौद्धिक नज़रिए को कायम रखने का प्रयोग कर रहे है l ये हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम इसे एक पोसिटिव नज़रिए से देखें ना कि इसे एक 'सेक्स को बढ़ावा देने वाली फिल्म' कहकर नकार दें l
सच तो ये है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे आप अनैतिक या सेक्सुअल कहेंगे, यह तीन छोटी डोक्युमेंटरी को मिलाकर बनी एक फिल्म है क्या आज भी प्रेमियों को मौत की सजा नहीं सुनाई जाती? क्या आज भी भारत में ज़्यादातर सेक्स स्कैंडल हिडन कैमरों की मदद से नहीं बनते? क्या मीडिया में 'पैड न्यूज़' या 'ब्लैकमैलिंग' नहीं होती ? अगर दिबाकर इन्हें हमारे सामने रख़ रहे है तो हमें इन्हें एक्सेप्ट करने में हिचक क्यों हो रही है ? क्या फिल्म के शीर्षक में 'सैक्स' शब्द के होने के कारण ही ये बखेड़ा खड़ा हो रहा है यदि ऐसा है तो हमें इससे उबरने की ज़रुरत है l
दिबाकर अपनी इस फिल्म में शायद यह दिखाना चाहते हैं कि छोटा-बड़ा हर कैमरा अपने आप में एक निर्देशक है इन मायनो में निर्देशक, निर्देशक कम एडिटर की भूमिका ज्यादा निभाता जान पड़ता है l क्योंकि कैमरा तो सिर्फ शूट करता है लेकिन निर्देशक उस शूटिंग को (LSD के सन्दर्भ में) सही मायने में एडिट करता चलता है इस फिल्म की तीन कहानियों को एक ही कलात्मक विचार में पिरोने की सफल कोशिश के दौरान दिबाकर डायरेक्टर-कम-एडिटर बन गए हैं ज़रुरत है इस तरह के नए प्रयोगों को तवज्जो देने की ताकि हर गली हर नुक्कड़ पर एक निर्देशक-एक एडिटर का ख्वाब जन्म ले सके l साहित्य में यह कहा जाता है कि ऐसी कोई वस्तु नहीं जिस पर कविता न लिखी जा सके l इस फिल्म के सन्दर्भ में दिबाकर हमें यही बताने की कोशिश करते हैं l
यह फिल्म हमें रश्मि(एक कैरेक्टर) जैसी उन तमाम लड़कियों के बारे में सोचने के लिए विवश करती है जो ना चाहते हुए भी उस स्कैंडल का हिस्सा हैं जिसका दायरा घर से लेकर मीडिया की चहल-पहल और यू-ट्यूब तक फैला है यह फिल्म शायद सबसे दर्दनाक तरीके से एक सांवली, भावुक(ईमानदार) लड़की की बदकिस्मती को ही नहीं दिखाती बल्कि इस ठरकी समाज के उस नंगेपन को भी दिखाती है जो कहता है कि 'कपडे उतारने के बाद काली-गोरी सब अच्छी लगती हैं l'

2 टिप्‍पणियां:

Ashish (Ashu) ने कहा…

बिलकुल सही समीक्षा..आभार

जितेन्द़ भगत ने कहा…

आपकी समीक्षा पढने के बाद फि‍ल्‍म देखने का मन बना है, देखते हैं कब वक्‍त मि‍लता है।