शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

कोई होता जिसको अपना.......


जिन लोगों के घर नही होते
वो बाहर जाकर
फुटपाथ पर चलते
निठल्ले घूमते
दिखते.....
उन्हें घर की बदहवासी का
लोगों की नज़रंदाज़ी का
सड़कों की बदइंतज़ामी का
पूरा ख़याल होता है ।

जिन लोगों के घर होते हैं
वो घर के भीतर
डरे-सहमे खिड़कियों से झांकते
दिखते....
उन्हें घर की दीवारों के सूनेपन का
बाहर की
भागती
ज़िन्दगी की घुटन का
पूरा ख़याल होता है ।

पर

जिन लोगों के घर
होकर भी नहीं होते
वो घर में रहकर भी
बाहरी
बाहर जाकर भी
बाहरी
बनकर
दोस्तों के साथ बातें करते
अपनी रातों को दिन बनाते
ब्लॉग लिखते
सोती आँखों को जगाते
बिना खाए सोते
दिखते....
चूँकि वो
ना तो घर पर
और ना ही बाहर,
किसी को मिलते,
उनका ना तो घर को ,
ना बाहर को
ख़याल होता है

बस

उनके आगे तो
एक यही सवाल होता है
क्या आज भी घर जाकर ,
भूखे
सोना होगा
क्योंकि
अब तक तो
रसोई का दरवाज़ा बंद हो चुका होगा
घरवाले सो चुके होंगे।
हाँ।
जीने का दरवाज़ा खुला होगा
क्योंकि उनको लगा होगा
कि एक शख़्स
इस सराय में
सोने के लिये
आने वाला है .....................शायद ।

5 टिप्‍पणियां:

जितेन्द़ भगत ने कहा…

बहुत धॉंसू लि‍खा है-

जिन लोगों के घर
होकर भी नहीं होते
वो घर में रहकर भी
बाहरी
बाहर जाकर भी
बाहरी

तरुण गुप्ता ने कहा…

शुक्रिया, जीतेन्द्र भाई

Dr Parveen Chopra ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है।

श्यामल सुमन ने कहा…

आपकी रचना को पढकर मुनव्वर राणा साहब की पंक्तियाँ याद आयी-

मसाइल न हमें बूढा किया है वक्त से पहले।
घरेलू उलझनें अक्सर जवानी छीन लेती है।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

तरुण गुप्ता ने कहा…

आप लोगो को पंक्तियाँ पसंद आई जानकर अच्छा लगा , मुन्नव्वर राणा , बशीर बद्र और निदा फाजली का तो मै फेन हूँ