सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

जातीय स्मृति पर संकट

कुछ दिन बाद दिवाली की धूम होगी , ये बात और है कि ये धूम दिवाली पर ही नज़र आएगी । अब त्यौहारों के प्रति कोई क्रेज़ नही रह गया , लगता है । मुझे याद है १५ अगस्त की पतंगबाज़ी मार्च में ही शुरु हो जाया करती थी । होली की शरुआत फाल्गुन में नहीं , बसंत में ही बच्चों के हाथों हो जाया करती थी । हम आठ आने का ढेर सारा रंग लाते थे क्योंकि मम्मी ढ़ाई रुपये की बैंगन वाली पिचकारी नहीं दिलवातीं थीं । दिवाली एक महीने पहले ही परचून की दुकानों पर मामा-चॉकलेट और फूँकवाले बम मिलने शुरु हो जाते थे । हम बच्चे एक रुपये के दस बम लेते और क्लास में धमाचौकड़ी मचाते , पढ़ने का तो जैसे मन ही नही करता था उन दिनों । एक त्यौहार जाता और अगले त्यौहार की तैयारियाँ शुरु हो जातीं । मेरी कॉलोनी के वो बच्चे अब छिछोरों की फेहरिस्त में शामिल हैं खूब धमाल मचाते थे । मुझे याद है जब कॉलोनी की बत्ती चली जाती तो सब बच्चे दुलारी (७० साल की एक बुढिया ) के घर के सामने पहुँच जाते और खूब ज़ोर से हल्ला करते , जानबूझ कर बम उसी के दरवाजे के आगे फोड़ते , क्योंकि वो हमें खेलने नहीं देती थी । ये सीजन हमारे बदला लेने का सीजन हुआ करता था । वो हमारे पीछे छड़ी लेकर दौड़ती और हम उसके पोपले मुँह का मज़ाक़ उड़ाते । लेकिन अब ये सब सोचकर अजीब लगता है । अब ये आलम है कि दिवाली कब है ये भी मुझे पूछना पड़ता है । वो हर त्यौहार का बेसब्री से इंतज़ार करना , वो क़ाग़ज़ का रावण बनाना , कुत्ते की पूँछ में बिजली बम लगाना , अब बड़ा याद आता है । वो सब शरारते , बहुत याद आती हैं । बचपन में जाने को जी चाहता है ।ये मेरी मजबूरी है लेकिन मैं जा नहीं पाता लेकिन जब आज के बच्चों को देखता हूँ तो और दुखी होता हूँ उनमें भी अब वो क्रेज़ नही रह गया है जो पहले हुआ करता था ।दिवाली आएगी और चली जाएगी । जैसे संडे आता है और चला जाता है । त्यौहार हमारी जातीय स्मृति होते हैं और जातीय स्मृति का मरना किसी भी समाज के लिए किसी भी सूरत में सही नही माना जा सकता । ऐसा मेरा मानना है ।

1 टिप्पणी:

जितेन्द़ भगत ने कहा…

आपने दि‍ल की बात कह दी-
वो हर त्यौहार का बेसब्री से इंतज़ार करना , वो क़ाग़ज़ का रावण बनाना , कुत्ते की पूँछ में बिजली बम लगाना , अब बड़ा याद आता है।

लेकि‍न इस लि‍हाज से शीर्षक काफी भारी लगा। जातीय स्‍मृति‍ को ये बाजार कभी मरने नहीं देगा, हॉं उसको मनाने के ढ़ंग में समय के साथ-साथ बदलाव जरूर आता जाएगा। सामाजि‍क ढ़ॉंचा में बदलाव के साथ-साथ बहुत सारी चीजें बदलने लगती हैं, इस बदलाव का कुछ लोग स्‍वागत करेंगे तो कुछ लोग नॉस्‍टेल्‍जि‍क होकर पुराने दि‍नों को याद करेंगें। भवि‍ष्‍य में कोई भी पर्व हर साल मनाया जाता रहे,यह ज्‍यादा जरुरी रह जाएगा।