
तुम्हारे बारे में क्या कहूं मै, मेरी तमन्नाओं का सिला है. नहीं मिला जो तो मुझको क्या है, मिलेगा तुमको ये आसरा है.
रविवार, 23 नवंबर 2008
ड़ी.यू (सार्थक अभिव्यक्ति की तलाश)

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
नई दुनिया की दुनिया
रविवार, 16 नवंबर 2008
राज तुम सभ्य तो हुए नही ............

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा ..........
प्रयोग करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन इसे करते वक़्त दूसरों की सुविधा-असुविधा का ख़याल न रखता ज़रूर ग़लत है । आज बस में भी ऐसा ही कुछ हुआ । बस काफी स्मूथ चल रही थी लेकिन एक सज्जन को अगले गेट पर लगा लाल बटन परेशान कर रहा था । उसने तुरंत ही इस परेशानी को प्रयोग में बदलने के लिए बटन को पुश कर दिया , स्मूथ चल रही बस में ख़ामी आनी लाज़मी थी । ड्राइवर ने जब उससे पूछा कि तूने ये बटन क्यों दबाया तो उसका वही आन्सर था जो अधिकतर लोगो का ग़लती करने पर होता है । उसने कहा मैंने तो ऐसे ही दबा दिया .। देख रहा था क्या होगा । बस रुक गयी थी वो सज्जन उतर गए लेकिन उन साहब की वजह से हमें २० मिनट तक रुकना पड़ा । ड्राइवर ने सब सवारियों को एक ही सुर में कोसना शुरू , खैर इंजन की ख़ामी दूर हुई हम चल पड़े । तभी मेरे बराबर में बैठे लड़के के मोबाइल पर एक गाना बजा । बोल थे ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा । मेरा ग़म कब तलक मेरा दिल तोड़ेगा ...............। ये गाना हमारी सिचुएशन पर कितना फिट बैठ रहा था । रंग की जगह बटन लगा दो तो भी कोई दिक्कत नही होगी ।
बुधवार, 5 नवंबर 2008
लत
एक युग था कृष्ण का
एक रावण-कंस का
और
एक युग है हमारा
यहाँ सब है सबके पास
पर
नहीं है कोई
किसी के साथ
इसलिए
ये युग तो सबका है
पर
इस युग का कोई नहीं
यहाँ
ये कहना , कि वो मेरे साथ है
स्वयं को धोखा देना है
और
हम अब भी सबको अपने साथ मानते हैं
हमें शराब की,
सिगरेट की,
लड़की की लत नहीं
क्योंकि
हमें धोखा खाने की लत लग गई है ।
सोमवार, 3 नवंबर 2008
जज़्बात
खुशबू फूलों में नहीं , रंगे-मेहफ़िल भी नहीं है ।
क्या हुआ वक़्त जो ठहरा हुआ-सा लगता है
पास में सब हैं मगर, साथ में कोई नहीं है ।
क्या करे इश्क़-ए-मजमूँ जो समझ में ना आया (प्यार का मतलब)
क्यों ना कह दूँ कि मुझे इसका तो इरफ़ा नहीं है । (जानकारी)
और बच जाऊँ अब ये कहके मैं उनकी नज़र से
कि किसी और से है प्यार, पर तुमसे...........
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
दिवाली मुबारक हो

कल दीपावली है
कुछ लोग
पटाखे जलाएंगे
कुछ लोग
दिल ।
एक तबका वो होगा
जिसके बंग्लो और कोठियो पर
लड़ियों की जगमगाहट होगी
कीमती मोमबत्तियाँ और दिये जलेंगे
और एक वो
जहाँ शायद चूल्हा भी ना जले ।
शराब की
सप्लाई के साथ डिमांड भी बढ़ जाएगी
जुआरियों के लिए
जश्न का दिन होगा कल
ना जाने कितनो की दिवाली होगी
और कितनो का दिवाला निकलेगा ।
राजधानी में पुलिस
अपनी जेब गरम करेगी ।
घरों में
लक्ष्मी की पूजा होगी
लेकिन बाहर लक्ष्मी,
लक्ष्मी की आस में
लक्ष्मणरेखा पार कर रही होगी ।
ऐसे ही दिवाली मनेगी
हर साल मनती है
मैं पिछले कई सालों से
यही देखता आया हूँ
'दिवाली मुबारक हो ' के पोस्टर
चौराहों पर चिपके मिलेंगे
जिसमें बेगै़रत नेता
बदसूरत छवि लिए
हाथ जो़ड़े दिखेंगे ।
जो इन्हीं पोस्टरों के पीछे से कहेंगे
कि
चाहे किसी के पास कुछ हो
या ना हो
भले ही किसी के घर में
आग लगे-चोरी हो
चाहे दिल्ली में कोई
सुरक्षित हो या ना हो
चाहे कहीं पर भी लोग मरें-ब्लास्ट हो
पर सभी को
हमारी तरफ़ से
"दिवाली मुबारक हो ।"
(पुन: प्रकाशित )
सोमवार, 20 अक्टूबर 2008
जातीय स्मृति पर संकट

शनिवार, 18 अक्टूबर 2008
आवाज़
मुझे तुम प्यार करो ।
मैंने कब कहा
मेरा ध्यान रखो ।
मैंने कब कहा
मुझे दुलारा करो ।
बस
मुझे पेट में न मारा करो ।
कोई होता जिसको अपना.......

वो बाहर जाकर
फुटपाथ पर चलते
निठल्ले घूमते
दिखते.....
उन्हें घर की बदहवासी का
लोगों की नज़रंदाज़ी का
सड़कों की बदइंतज़ामी का
पूरा ख़याल होता है ।
जिन लोगों के घर होते हैं
वो घर के भीतर
डरे-सहमे खिड़कियों से झांकते
दिखते....
उन्हें घर की दीवारों के सूनेपन का
बाहर की
भागती
ज़िन्दगी की घुटन का
पूरा ख़याल होता है ।
पर
जिन लोगों के घर
होकर भी नहीं होते
वो घर में रहकर भी
बाहरी
बाहर जाकर भी
बाहरी
बनकर
दोस्तों के साथ बातें करते
अपनी रातों को दिन बनाते
ब्लॉग लिखते
सोती आँखों को जगाते
बिना खाए सोते
दिखते....
चूँकि वो
ना तो घर पर
और ना ही बाहर,
किसी को मिलते,
उनका ना तो घर को ,
ना बाहर को
ख़याल होता है
बस
उनके आगे तो
एक यही सवाल होता है
क्या आज भी घर जाकर ,
भूखे
सोना होगा
क्योंकि
अब तक तो
रसोई का दरवाज़ा बंद हो चुका होगा
घरवाले सो चुके होंगे।
हाँ।
जीने का दरवाज़ा खुला होगा
क्योंकि उनको लगा होगा
कि एक शख़्स
इस सराय में
सोने के लिये
आने वाला है .....................शायद ।
शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008
अभियान ( शेष भाग )
इसके लिए पहला सुझाव कृञिम जलाशयों के रूप में हमारे सामने उभरता है । हमने वज़ीराबाद पर यमुना नदी के किनारे स्नान घर के ऱूप मे सूर यमुना घाट का निर्माण करवाया है । क्या हम इसी की तर्ज़ पर यमुना के ही जल का अलग से एक कुंड नही बना सकते , जहाँ यह सब सामग्री विसर्जित की जा सके । जिसका बाद में पुनर्चक्रण कर लिया जाए इससे लोगों की आस्था भी बनी रहेगी और यमुना प्रदूषित भी नहीं होगी । ३ साल पहले मुम्बई की मेयर ने गणेश उत्सव के दौरान यही तरक़ीब इस्तेमाल की जो काफी सफल रही।
दूसरा सुझाव यह है कि सरकार हर निगम ,ब्लॉक , क्षेञ , में उत्सवों के दौरान पंडाल या सामग्री गृह बनायें । जहाँ यह सभी सामग्री रखी जा सके जिसका बाद में सरकार खाद , भराव आदि के रूप में या जैसा भी पर्यावरण के अनुकूल हो इसका प्रयोग करे ।
सुझाव और भी हैं जैसे कि मूर्तियों के निर्माण में प्लास्टर ऑफ पैरिस की जगह चिकनी मिट्टी का उपयोग , सिंथेटिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का प्रयोग आदि । उपरोक्त सुझावों को अपनाकर हम न केवल नदियों को प्रदूषित होने से बचा पाएंगे बल्कि अपनी आस्था के सवाल को भी सार्थक जवाब दे पाएंगे । यह सुझाव सिर्फ यमुना की रक्षा के लिए ही नही बल्कि हर उस जल-कुंड , जलाशय , आदि जलस्रोतो के हित में होंगे जो हमारी आस्था का शिकार बन प्रदूषित होते हैं ।
शनिवार, 4 अक्टूबर 2008
अभियान
मंगलवार, 30 सितंबर 2008
कभी-कभी
क्या रही कमी अब तो ।।
कुछ भी दिल से निकल नही पाता ।
धड़कन भी है थमी अब तो ।।
राहबर जान कर जिन्हें चाहा ।(दोस्त )
राहजन बन गए वो लोग अब तो।।(लुटेरे)
बात जिनसे नहीं छिपाई कोई ।
वो पूछते है कुछ कहो अब तो ।।
शनिवार, 27 सितंबर 2008
वो दिन
मंज़िलें हों या न हों पर रास्ता तुम हो ।।
जब भी कुछ ग़लत-सा हम काम करते हैं।
डर ये लगता है हमें ना साथ में तुम हो ।।
बस खुशी इस बात की है दोस्ती तो है ।
प्यार का इक़रार नही साथ तो तुम हो ।।
उसको कह सकता नही तुमसे ही कह दूँ मैं ।
तुम ही हो मेरे राज़ और हमराज़ भी तुम हो ।।
कुछ नही था झूठ जो मैंने कहा तुमसे ।
क्यो कहूँगा मैं मेरी हर साँस में तुम हो ।।
इसका ग़िला नही हमारे साथ नही तुम ।
बस ग़िला ये है किसी के साथ में तुम हो ।।
(ये ग़ज़लनुमा पंक्तियाँ उस दौरान लिखीं गयीं जब मैंने पहली बार ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत अहसास से अपना परिचय करावाया )
गुरुवार, 18 सितंबर 2008
नया स्लेबस नयी राह
शनिवार, 13 सितंबर 2008
जब मैंने कहा
बस / तुम हँस दीं ।
जब मैंने कहा / मैं तुम्हें चाहता हूँ बेपनाह/
तुमने कुछ नही कहा बस अपनी उँगलियाँ मेरे होंठो पे रख दीं ।
जब मैंने कहा /चलो आज फिल्म देखने चलते हैं / तुमने कुछ नही कहा /
तुम मुस्कुराईं और क्लास लेने चलीं गईं ।
जब मैंने कहा / शाम मस्तानी है पार्क में चलें क्या ?तुमने कुछ नही कहा /
मेरा हाथ थामा और चल दीं ।
जब मैंने कहा / शादी करोगी मुझसे /
तुमने कहा- पागल हो गए हो क्या ?
आज के बाद हम कभी नही मिलेंगे ।
गुरुवार, 4 सितंबर 2008
कोसी का कहर और ........................
गुरुवार, 28 अगस्त 2008
मेरी दिल्ली मै ही सवारूँ
रविवार, 10 अगस्त 2008
किस्सागोई के किंग
हम सब लोग मैच के तुंरत बाद एक ढाबे पर आए और उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ उसने हमें शाम ७ बजे तक बांधे रखा । साऊथ कैम्पस के लड़के अरविन्द ने जिससे मेरी मुलाक़ात शायद पहली बार ही हुई थी ने ऐसा समां बाँधा कि कम से कम उस समय तो मैच की सारी थकान उतर गई ।
उस बन्दे के वो किस्से (जिसमे कुछ नॉन- वेज भी थे) जिसकी सबसे दिलचस्प बात थी उसकी दास्तानगोई यानि उसके बयां करने का स्टाइल । जो इतना उम्दा था कि उन किस्स्सो को सुनने के दौरान मुझे यक-ब-यक सूरज का सातवाँ घोड़ा के माणिक मुल्ला की याद हो आई । हालांकि माणिक मुल्ला के किस्से और इन जनाब की मजाकिया किस्सागोई में भारी विषयांतर था लेकिन दोनों में एक कॉमन बात थी । दोनों में ज़बरदस्त कौतुहल था ,रोचकता थी और थी अपने सुनने वालो को बांधे रखने की क्षमता । यह इतनी ज़बरदस्त थी कि सब लड़को का ग्रुप उस बन्दे की बाते सुनता जाता और हँस-हँस कर लोट-पोट होता जाता ।
रोमेंटिक कविता के बारे में ये बात कही जा सकती है कि ----
" कविता यों ही बन जाती है बिना बताये
क्योंकि ह्रदय में तड़प रही है याद तुम्हारी । "
लेकिन जब किस्सों की बात आती है तो किस्सा यों ही नही बनता वह तो गढा जाता है वह एक माहौल चाहता है और एक माहौल बनाता है। यह बात कहते वक़्त नई कहानी का ख्याल हो आता है उसकी सबसे बड़ी खासियत भी यही थी कि वह एक माहौल की डिमांड करती थी । अरविन्द बाबू की किस्सागोई (जिसका मै कोई उद्धरण नही दे रहा हूँ ) माहौल बनाने के इन्ही संदर्भो में याद आती है । जो अपने सुनने वालो का सिर्फ़ मनोरंजन ही नही कर रही थी बल्कि इस बात का भी एहसास करा रही थी कि किस्से किस तरह से कथाओ से निकल कर चुटकुलों में आ गए है । इन साहब में बन्दों को बाँधने की ही क्षमता मात्र नही थी बल्कि ये झूट भी इस ढंग से कहने की कला रखते थे कि वह भी सच जान पड़ता था गाइड के नाम पर मेरा जो मजाक बनाया गया था वह अब लगभग सच सा हो गया है । खैर जो भी है उस बन्दे की इस किस्सागोई ने समय की बर्बादी की चिंता से हमें कोसो दूर रखा । मै तो उसका मुरीद बन गया हूँ ऐसे बन्दे अपने आस पास रहे तो रिश्तो की चुभन का और जिंदगी की घुटन का एहसास कम से कम कुछ पल के लिए तो हमसे दूर रहता है ।
शुक्रवार, 18 जुलाई 2008
बच्चो को प्रोमोट करना अलग बात है और उन्हें सीधे पास कर देना अलग । ऐसा फ़ैसला देते वक्त हमें इस बात का ख़याल रखना होगा कि पहले ही बच्चो को छठी और सातवी कक्षा में प्रमोट के तौर पर २० से ३० नंबर की छूट दी जाती है इसके बाद भी अगर बच्चा फेल हो जाता है तो इसकी ज़िम्मेदारी उसके माता-पिता , अध्यापक , और ख़ुद उसकी बनती है । लेकिन इसका हल बिना कोई नीति तय किए बच्चो पर दया-दृष्टि कर उन्हें पास कर देना नही है बल्कि इसकी जगह यदि दिल्ली सरकार अपने विद्यालयों की , शिक्षा प्रणाली की दशा पर ध्यान देती तो हमें ज़्यादा खुशी मिलती । सरकार के वर्तमान फैसले का परिणाम यह हुआ है कि वे छात्र जिन्हें अपना पढ़ना , लिखना,यहाँ तक कि जोड़ - घटा के सवाल तक नही आते उनका सामना अब अगली कक्षा में वर्गमूल,घनमूल, से कराया जा रहा है। ये वे छात्र है जो एक - दो विषयो में ४-६ अंको से फेल नही हुए थे कि इन्हे प्रोमोटेड पास कर दिया जाता बल्कि ये वे बच्चे है जो पाँच-पाँच विषयो में १५-२० अंक भी नही ला सके । हमारा सवाल ये है कि क्या इन्हे अगली कक्षा में भेजने से बेहतर ये न होता कि इन्हे उसी कक्षा में रख कर अच्छी सिक्षा दी जाए ताकि ये अपने साथियो कि तरह सफल होने के लिए मेहनत करे इन्हे सरकार कि दया का मोहताज न होना पड़े ।
फेल करना कोई सज़ा नही है बल्कि बच्चे में यह एहसास जगाना है कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए मेहनत करनी होगी पास मेंहनत का ही फल है जो बच्चे को प्रोत्साहित करता है अधिक मेहनत करने के लिए ,एक्साम में मिलने वाले अंक उस उत्साह को बनाये रखते है जो बच्चो में सांस्कृतिक प्रतियोगिता को बनाये रखता है । सरकार का इस सम्बन्ध में कहना है कि इससे बच्चे प्रोत्साहित होंगे ----लेकिन क्या इनसे उन बच्चो का उत्साह नही गिरेगा जो परीक्षा में सफल होने के लिए जी तोड़ मेहनत करते है । क्या बच्चो में ये भावना नही जागेगी कि मेहनत करने कि क्या ज़रूरत है पास तो कर ही दिए जायेंगे ?इस तरह की भावना बच्चो में प्रोत्साहन नही बल्कि पतानोंमुखता पैदा करेगी और सरकार का बच्चो कि भलाई के लिए उठाया गया क़दम उनके लिए सबसे बड़ा रोड़ा साबित होगा ।
इन सब बातो का आधार मात्र मेरी सोच नही है बल्कि वो अनुभव है जो मैंने छोटे बच्चो को पढाते वक्त महसूस किया है । फेल होने की तीस क्या होती है और उसकी प्रतिक्रिया कैसी होती है इसे भी मैंने महसूस किया है ।
इस मुद्दे को उठाना बेहद ज़रूरी इसलिए लगा क्योकि दिल्ली में शिक्षा के लिए काफी फंड और आर्थिक सहायता आदि दी जा रही है और दिल्ली की सरकारी और सस्ती शिक्षा निरंतर विकासोन्मुख है ऐसे में सरकार का एक भी ग़लत क़दम हेमू कि आँख में तीर साबित हो सकता है इस तरह के फैसले लेने से पहले शिक्षाविदों ,बाल मनोचिकित्सकों ,अध्यापको,अभिभावकों आदि के साथ विचार विमर्श ज़रूर कर लेना चाहिए और हो सके तो इनमे छोटे बच्चो कि भी राये ली जानी चाहिए। अन्यथा ये सारी दया बेमानी होगी जबकि हम सभी चाहते है कि ये बच्चे आने वाले भारत की नई तस्वीर पेश करे ।
रविवार, 22 जून 2008
कुछ दोस्त ऐसे भी
मशीन पर ही तो रख कर गया था लगभग आधे घंटे तक हमने उसे तलाशने कि कोशिश की लेकिन वह नही मिली ,मेरा अगले दिन सेमीनार था लेकिन दिमाग में ये टेंशन थी कि अगर किताब न मिली तो मै अपने मित्र से क्या कहूँगा? खैर सेमीनार मैंने जैसे तेसे दे दिया लेकिन दिमाग से वो बात निकल ही नही पा रही थी कि मुझसे वेह किताब खो गई। मै फिर से फोटो कॉपी वाले के पास पहुँचा वहाँ सामान फैला हुआ था मेरे पूछने पर उसने बताया कि तब से आप की ही किताब तलाश रहा हूँ लेकिन मिल नही रही उसने मुझे किताब के बदले पैसे की पेशकश भी की लेकिन मै उसे अपना फोन नम्बर देकर चला आया मैंने उससे इतना ही कहा कि यार कम से कम पर्सनल बुक का तो ध्यान रखा करो खैर अगर बुक मिल जाए तो मुझे इस नम्बर पर बता देना। इसके बाद मैंने अपने उस मित्र को जिसकी वो किताब थी सब बता दिया उसे बुरा तो लगा लेकिन उसने मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहा ............ तरुण यार ये मेरी बुक नही थी मेरे सर की थी। चल कोई बात नही।
कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि इस किताब कि फोटो कॉपी मेरे क्लास मेट रामचरण पाण्डेय के पास है मैंने उससे इसकी फोटोकॉपी मांगी। उसका चेहरा मुरझा गया उसने मुझसे पुछा कि तरुण तुझे किसने बताया। राजू ने- मैंने कहा। ठीक है मै कल ले आऊंगा ।
अगले दिन जब वह किताब लेकर आया तो मैंने उसे देख कर पहचान लिया मैंने उससे पुछा कि ये किताब तुझे कहा से मिली । तो उसने हंसीहंसी में मुझे बताया कि तरुण ये किताब तो मेरे एक सीनिएर ने library se तपाई है।
इतना कहना था कि मैंने उसे बता दिया कि ये बुक मेरी है मैंने कहा कि यार अपने सेनिएर से कहना कि ऐसा काम ना किया करे ये ठीक नही है और ये किताब मैंने ही फोटोकॉपी वाले को दी थी जहाँ से आपके सेनिएर साहब ने इस हसीं घटना को अंजाम दिया। मैंने उसे ये भी बाते कि ये किताब अजीत की है।
और उसने भी अपने सर से मांग कर मुझे दी थी मैंने जब उससे उसका नाम जानना चाहा तो उसने कहा यार मै तो अजीब मुसीबत में फंस गया हूँ। मतलब । यार तू समझ नही रहा है। तुम तो दिल्ली वाले हो मगर मै तो बाहर से आया हूँ मै उनसे दुश्मनी कैसे ले सकता हूँ ?मैंने कहा इसमे दुश्मनी वाली बात कहाँ से आ गई । तू कम से कम सच का साथ तो दे और अगर कुछ न कर सके तो मुझे उनका नाम तो बता दे । लेकिन उसने manaa कर दिया मुझे इतना बुरा लगा कि क्या कहूं। ये वही लोग है जो हिन्दी ऍम फिल का सेमीनार देते वक्त सत्य ,सामाजिक प्रतिबद्धता ,नैतिकता की बात कर रहे थे। मैंने कहा की आज के बाद प्ल्ज़ तू मुझसे बात मत करियो मुझे शर्म आ रही है कि तुम जैसे लोगो से मै बात कैसे करता था जो लाइब्रेरी कि किताबो कि चोरी किया करते है या उसमे हाथ रखते है । मैंने जब ये बात अजीत को बताई तो उसने कहा साले डी.यूं वाले। और उसके बाद मेरी किसी से कुछ कहने की हिम्मत न हुई । क्यूंकि बदनामी तो मेरी युनिवेर्सिटी कि ही थी ना ?रामचरण पर मुझे बहुत गुस्सा आता है इस बात पर नही कि उसने मुझे उसका नाम नही बताया बल्कि इस बात पर कि उसने मुझे ३-४ महीनो से इसी ताल मटोल में रखा कि मै उनसे बात करूँगा । लेकिन बात के नाम पर वो क्या कर रहा था मुझे समझते देर ना लगी। और मैंने उससे इतना ही कहा ki - तय करो किस ओर हो तुम?
सोमवार, 16 जून 2008
नाक मे नकेल
हमे इसकी सराहना करनी चाहिए ,जो लोग इस बारे मे कुछ अलग मत रखते है या जो ये कहते कि इससे मीडिया कि स्वायत्तता पर प्रश्नचिंह लगेगा तो वो तो मीडिया कि वर्तमान स्तिथि को देखते हुए बेहद ज़रूरी जान पड़ता है ,क्योंकि सवाल स्वायत्तता पर अंकुश का नही है सवाल है खबरों के नाम पर खबरों के अलावा बाकि सब कुछ परोसने का जोकि अब तक बदस्तूर जारी है !..........................................................................................!
शनिवार, 14 जून 2008
नया ज़माना
कल मेरी तरफ़ भी इसी तरह का एक काग़ज़ एक छोटी सी लड़की (उम्र लगभग १०-१२साल) ने फेंका मैंने उसे पढ़ा जिसमे वही सब लिखा गया था जिसके बारे मे मैं पहले ही बता चुका हूँ !खैर वह लड़की मेरी तरफ़ हाथ बढाकर खड़ी रही इस आशा मे कि बाबूजी कुछ देंगे लेकिन मैं चुपचाप उसकी मासूमियत की ओर देखता रहा इतने मे मेरे पास बेठे आदमी ने कहा कि "इनका तो रोज़ का काम है,धंधा बना लिया है अब तो !साहब बोलते जा रहे थे और मैं ये सोच रहा था कि इतने छोटे बच्चे पर्चे छपवायेंगे भला ?और ये सोचकर कि इनके पीछे कितना बड़ा गिरोह काम कर रहा होगा !न केवल यहाँ बल्कि न जाने कहाँ-कहाँ ऐसे बच्चे भीख मांग रहे होंगे और हम जैसे लोग उनके बारे मे इस तरह की ही बातें सोच रहे होंगे ! रात मे जब घर पहुँचा तो थका हुआ था टी .वी का स्वित्च दबाया उस पर न्यूज़ आ रही थी कि दिल्ली मे और शहरो के मुकाबले बच्चो का जीवन स्तर बेहतर बनता जा रहा है ! ये sunkar mujhe hansi आ गई और मेरे सामने उसी बच्ची का चेहरा आ गया जो सुबह बस मे मिली थी !